हम भारत के लोग

भारत और भारतीयता के साथ हमारा समाज सहकारिता पर आधारित था।

भारत में मजदूर नहीं, सब अपने काम के साथ मुल्क के मालिक थे, जो सुरक्षा के लिए राजा को कर, शिक्षा के लिए शिक्षक को दान देते थे।

झोपड़ी वाली कबीलाई व्यवस्था से निकलकर नगरीय व्यवस्था वाले नाग, नंद, मौर्य काल से मुगलकाल तक नंदपथ,अशोक मार्ग (पौराणिक उत्तरापथ) मुगल काल में शेरशाह सूरी, अंग्रेजों के काल में जी टी रोड से फारस तक विकसित दुनिया के अनेकों देशों से अकेले देश, भारत का ही सोने-चांदी के सिक्कों में विदेश व्यापार होता था। भारत में कोई सोने की खदान नहीं थी, उत्पादित और कृषिजनित माल से विदेश व्यापार के बदले भारत में सोने का भंडार भरा था।

भारत का ज़मींदार छोटे राजा का, छोटा राजा, बड़े राजा का गुलाम होता था लेकिन भारत का आम नागरिक किसी का गुलाम नहीं होता था, सभी के पास पीढ़ी दर पीढ़ी (जातिगत) या कौशल जन्य चलने वाले कृषि, कपड़ा, चमड़ा, लकड़ी, धातु, कांच आदि के उद्योग थे।

अंग्रेजों ने भारत की इस व्यवस्था पर हमला किया और भारत की अर्थव्यवस्था पर कब्जा कर भारत के कुशल उद्योग के मालिकों के उद्योग सहित धन, धरती, सत्ता, संपति एवं सोने चांदी पर कब्ज़ा कर मजदूर बना दिया।

भारत के श्रमजीवियों के मजदूर बनाने वाले कारणों में तत्कालीन पूंजी आधारित समाज व्यवस्था के पैरोकारों और धर्म का धंधा करने वाले बुद्धिजीवियों का भी बड़ा हाथ था, उन्हीं की पीढ़ियां भारत के विकास में स्वतन्त्रता के बाद भी आज तक बाधक हैं क्योंकि सत्ता और सामाजिक व्यवस्था अभी तक भी विदेशियों के हाथों में है।

हम चुनाव के लिए राजनैतिक रूप से आज़ाद दिखते हैं पर आर्थिक रूप से आज भी विदेशियों (कामनवेल्थ के सदस्य) के और सामाजिक रूप से विदेशी धर्मों और पूंजीवादी विदेशधर्मियों के मानसिक गुलाम हैं।

भानु प्रताप सिंह (लखनऊ)
भारतीय मतदाता संघ

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