1921 में प्रेमचंद ने 'पूस की रात' नाम से एक कहानी लिखी थी । 2010 में बॉलीवुड की फिल्म 'पीपली लाइव' का गाना: सखी, सैंया पैसा तो खूबई कमात है, महंगाई डायन खाए जात है। क्या इन दो रचनाओं के निहितार्थ में कोई समानता है, जो आज 2021 में भारत के एक कृषि प्रधान देश होने के बावज़ूद कृषकों के जीवनोन्नयन में रोडा बनी हुई है ? भारतीय किसान की एक आम छवि क्या है, उसे किस रूप में परिभाषित किया जा सकता है ?
उत्तर प्रदेश समेत भारत की 50% से अधिक आबादी अभी भी खेती-बाड़ी के कामों से जुड़ी हुई है। इसमें बड़े किसान, छोटे किसान, सीमांत किसान, यहां तक कि भूमिहीन किसान भी आते हैं। जहां तक आंकड़ों का प्रश्न है, 86% से अधिक किसानों के पास 5 एकड़ से कम की भूमि है। तथापि, कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में इन किसानों के योगदान को कमतर नहीं आंका जाना चाहिए। क्योंकि यदि ये किसान अपने उपभोग के लायक उपज पैदा न करें तो बाकी किसानों पर आश्रित होंगे और देश के सकल कृषि उत्पादन में गिरावट आयेगी ।
भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में ग्रामीण अर्थव्यवस्था और कृषि आधारित अर्थव्यवस्था एक दूसरे के पूरक हैं। उदारीकरण के बाद अचानक से एक अवधारणा देश की 70% से अधिक आबादी पर थोपी जा रही है । वह यह कि जब तक हम गांव से शहर की ओर नहीं जाएंगे हमारा विकास नहीं होगा । इसे विकास की कपोल कल्पना ही कहा जायेगा क्योंकि गांव से शहरों की ओर पलायन ने ग्रमीण अर्थव्यवस्था का सांचा उलट दियाहै । किसान शहरों में जा कर विनिर्माण क्षेत्र के दिहाड़ी मजदूर बनकर रह गए हैं। विनिर्माण क्षेत्र की प्रगति इन श्रमिकों को कम से कम मजदूरी देने पर टिकी हुई है। इस तरह इन किसानों का गांव से शहर की ओर पलायन और विनिर्माण क्षेत्र में मजदूर के रूप में खप जाना, विकास के मौलिक सिद्धांत को ही धता बताता है ।
अगर हम किसानों की बात करें तो स्पष्ट है कि अगर पैदावार अच्छी होती है तब भी वे अपनी फसल का वाजिब मूल्य प्राप्त करने में असमर्थ हैं। यह न तो बाजार का सिद्धांत है और न सरकार के हस्तक्षेप का मूल मकसद । फिर यह सवाल उठता है कि किसानों का भाग्य विधाता कौन है ? वे कब तक फसल बोते रहेंगे और नुकसान काटते रहेंगे ?
यह एक संयोग है कि भारत के तथाकथित बीमारू राज्य कहे जाने वाले सभी राज्य अधिक जनसंख्या वाले और कृषि प्रधान राज्य हैं, जिसमें उत्तर प्रदेश प्रमुख है। उदारीकरण के समय ही एक राष्ट्र ऋषि के रूप में दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने स्वदेशी का आदर्श हमारे सामने रखा था जो भौतिक संसाधनों के अलावा हमारी संस्कृतिक परंपराओं की उपयोगिता की सार्थक अभिव्यक्ति है । खेती बाड़ी की उन्नति का रास्ता शायद वहीं से होकर निकलेगा । प्राथमिक क्षेत्र और द्वितीयक क्षेत्र जिसे हम कृषि क्षेत्र और विनिर्माण क्षेत्र भी कह सकते हैं, एक दूसरे के प्रतिपूरक हैं । उदाहरण के लिये धान प्राथमिक क्षेत्र का उत्पाद है और धान से बने फास्ट फूड विनिर्माण क्षेत्र के उत्पाद हैं। इस गठजोड़ को समझने की आवश्यकता है। विनिर्मित उत्पाद का कच्चा माल किसान के खेतों से आता है जबकि लाभ का अधिकतर हिस्सा मॉल या फैक्ट्री के मालिक की जेब में जाता है। इसे हम किसानों की नियति कह कर या मान कर अपनी सामाजिक जिम्मेदारी से बरी नहीं हो सकते । यह पूंजी प्रधान अर्थव्यवस्था से उतपन्न हुई विकृति नतीजा है ।
भारत के बड़े और अग्रणी राज्य, जिनमें उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश शामिल हैं, अगर विकास के स्वदेशी मॉडल को विकसित करें तो ग्रामीणों का पलायन रुकेगा । विनिर्माण क्षेत्र पर दबाव बढ़ेगा। किसान उत्पादक के रूप में स्वयं को बदले । कच्चे माल को बेचने तक ही सीमित न रहें बल्कि खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र में भी उतरें ।क्योंकि कृषि प्रधान भारत के लिए किसानों की समृद्धि अत्यंत आवश्यक है।
डॉ० हर्षमणि सिंह
(अर्थशास्त्री)
One thought on “खेतीबाड़ी किसान और आत्मनिर्भरता”
आत्मनिर्भर भारत का जो संकल्पना गोवा सरकार ने स्वयं भू योजना से सफल बनाने के लिए संकल्पित हैं ठीक उसी प्रकार प्रत्येक राज्य सरकार को यहाँ नीति अपनाना चाहिए।