लोक पहल के द्वारा “क्षेत्रीय भाषाओं के विकास में योगी सरकार का योगदान” विषय पर 9 जनवरी, 2022 को ऑनलाइन कार्यक्रम आयोजित किया गया। इस कार्यक्रम के मुख्य वक्ता डॉ. उदय प्रताप सिंह (अध्यक्ष हिंदुस्तानी अकादमी उत्तर प्रदेश प्रयागराज) जी रहे।
वक्तागण एवं विचारमाला
डॉ. उदय प्रताप सिंह (अध्यक्ष हिंदुस्तानी अकादमी उत्तर प्रदेश प्रयागराज)- हम भले ही विविध भाषाई क्षेत्र से आते हों, हमारी संस्कृति एक ही है। चालीस वर्ष के अध्यापन कार्य के बाद मुझे हिंदुस्तानी अकादमी प्रयागराज में इस राजकीय पद पर नियुक्त किया गया। हिंदुस्तानी अकादमी की स्थापना वर्ष 1927 में हुई। वह गुलामी का काल खंड था। देश की राजनीतिक आज़ादी का संघर्ष तीव्र होता जा रहा था। मगर इसके साथ साथ यह भावना भी प्रबल हो रही थी कि राजनीतिक संघर्ष से हमें सांस्कृतिक आज़ादी नहीं मिलने वाली है। इसी भावना से प्रेरित हो कर डॉ हेडगेवार ने 1925 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की नीव रखी।
शीघ्र ही हिंदुस्तानी अकादमी अपनी स्थापना के शताब्दी वर्ष में प्रवेश करने जा रही है। मगर जब मैं अकादमी के आज तक के कार्यों पर, अभिलेखों पर नजर डालता हूं तो पाता हूं कि देश की सांस्कृतिक चेतना को कभी भी एक रूप नहीं दिया गया। हिंदी भाषा को महात्मागांधी `हिंदुस्तानी’ भाषा कहा करते थे जो वास्तव में हिंदी और उर्दू का मिलाजुला रूप है। और इसी मिश्रित स्वरूप को आगे ले जाने के लिए इस संस्था की स्थापना हुई। परन्तु आज से 5 वर्ष पूर्व प्रदेश में एक गेरुआधारी मुख्यमंत्री का प्रवेश हुआ। हमारी संस्कृति मूल रूप से सन्यासियों की दी हुई संस्कृति है। ऋषियों की, तपस्वियों की दी गयी संस्कृति है। और जब इस संस्कृति का संचालन कोई सन्यासी करता है, साधक करता है तो उसका साक्षात स्वरुप हमारे समक्ष उपस्थित होता है।
मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने तीसरे दिन ही गोरखपुर में आयोजित एक सार्वजानिक सभा में योगीजी ने कहा था: `हमारी संस्कृति सुरक्षा होनी चाहिए। और साहित्य के सहारे ही यह सुरक्षा कारगर एवं स्थायी हो सकती है। उन्होने भाषा विभाग को अपने पास रखा। पूर्व की सरकारों की दृष्टि में भाषा कभी भी कोई महत्वपूर्ण विभाग नहीं रहा। सपा और बसपा सरकार में तो इस विभाग के सारे अधिकारी हटा दिए गए थे। अध्यक्ष का पद भी नहीं था, सब गोल माल था।
मगर सन्यासी की चेतना कुछ होती है। यह चेतना पूज्य योगी गोरखनाथ जी की थी। बीस मार्च 2017 को योगी जी ने सार्वजानिक सभा में कहा था: हमारी संस्कृति तभी बची रह सकती है जब हम भाषाओं का संरक्षण करेंगे। वक्तव्य के आधार पर भाषा वभाग सक्रिय हुआ और योगी सरकार बनने के एक वर्ष बाद मुझे यह पदभार संभालने का अवसर मिला। योगीजी ने मुझसे कहा : हिंदुस्तानी अकादमी का पदभार आपको संभालना है।
अकादमी में आकर मैने अध्यन किया और विषयवस्तु पर महाराजजी (योगीजी) से मिलने का क्रम बढ़ता गया। वे मुझसे पूछते, भोजपुरी, अवधी, ब्रजभाषा और बुंदेली भाषा के बारे में आप क्या कर रहे हैं हैं ? मैंने अपने मित्रों, विद्वानों और मनीषियों से गहन मंत्रणा की और इस निर्णय पर पहुंचा कि हमारी जो सांस्कृतिक चेतना है, वह हमारी क्षेत्रीय भाषाओं में ही सुरक्षित रह सकती है। यहाँ भाषा और बोली की समझना होगा। जिसमे साहित्य की रचना न की जाये उसे बोली कहते हैं। और जिसमें साहित्य रचा जाये उसे भाषा कहा जायेगा भले ही साहित्य की रचना बोली में ही क्यों न की गयी हो। इस प्रकार बोलियां भाषा बनती चली गयीं और क्षेत्रीय बोलियां क्षेत्रीय भाषाओँ के रूप में स्थापित होती गयीं और इनका अध्यन भी बढ़ता गया।
यह सर्व विदित है कि 500 वर्ष तक देश में इस्लाम मतवलम्बियों का शासन था। इन 500 वर्षों के सभी स्वाधीनता संग्राम क्षेत्रीय भाषाओँ के माध्यम से लडे गए। भगवन राम को नायक बना कर तुलसीदास जी अवधी भाषा के माध्यम से देश भक्ति का पाठ पढ़ा रहे थे। इसके अलावा उन्होंने काशी में 12 अखाड़ों की भी स्थापना की। अखाड़ों की कहानी कुछ इस प्रकार से है। महाराजा बनारस के पुत्र शिकार खेलते समय जंगल में कहीं खो गए। सहायता के लिए मेघा भगत के पास गए। मेघा भगत ने सुझाया की एक साधू रामसलाका के माध्यम से बता सकते हैं कि उनका पुत्र कब वापस आएगा। वह साधू तुलसीदास जी ही थे और उन्होंने रामसलाका की सहायता से वांछित जानकारी दे दी। जानकारी सही निकली जिससे प्रसन्न हो कर राजा ने मेघा भगत को 1200 का पुरुस्कार दिया। भगत ने यह पुरुस्कार तुलसीदास जी को दे दिया। तुलसीदासजी ने इस धनराशि से 12 अखाड़ों/हनुमत विग्रहों की स्थापना की। इनमे से १० आज भी कशी नगरी में देखे जासकते हैं, 2 की भूमि पर संभवतः किसी का कब्ज़ा हो चुका है। यह इस बात का प्रमाण है कि एक और तो तुलसीदास जी साहित्य के माध्यम से जन जन को राम जैसा बनने की प्रेरणा दे रहे थे, दूसरी और अखाड़ों के निर्माण से शत्रुओं से लड़ने के लिए शारीरिक बल के महत्व को भी रेखांकित कर रहे थे।
क्षेत्रीय भाषाओं के रंरक्षण हेतु हिंदुस्तानी अकादमी की और से 4 केंद्रों के स्थापना की गयी है। भोजपुरी का केंद्र गोरखपुर में, बुंदेली का झाँसी में, बृज भाषा का मथुरा वृंदावन में, और अवधी का अयोध्या में।
हिंदुस्तानी अकादमी द्वारा 1930-31 में कहानी सम्राट मुंशी प्रेम चाँद को 500 रुपये का सम्मान पुरुस्कार दिया गया। अयोध्या सिंह उपाध्याय को 600 रूपये और इसी प्रकार सम्मान श्याम सूंदर दस जी को दिया गया। वर्ष 1998 में यह सम्मान राशि 25000 रुपये हुई। आज राष्ट्रीय स्तर के 3 सम्मान, गोरखनाथजी, तुलसीदासजी और कबीरदास जी पर, इन तीनो की सम्मान राशि 3 लाख रुपये प्रति है। क्षेत्रीय भाषाओं के संरक्षण के लिए शब्दकोश जा रहे हैं। भारत के 3 सनातन प्रतीक हैं काशी मथुरा और अयोध्या। और इन तीनों का इतिहास 3 अलग अलग क्षेत्रीय भाषाओ में लिखा है, क्रमशः भोजपुरी, बृज भाषा और अवधी। यदि यह सत्य है तो हम क्षेत्रीय भाषाओं की उपेक्षा या अनदेखी कैसे कर सकते हैं ? क्षेत्रीय भाषाओं के संरक्षण के लिए जो शुरुआत योगी जी ने की है वह अप्रतिम और अत्यंत महत्वपूर्ण है। क्योंकि सांस्कृतिक संरक्षण के बिना देश समाज का स्थायी/दीर्घकालिक विकास संभव नहीं है। और सांस्कृतिक संरक्षण केवक क्षेत्रीय भाषाओं के द्वारा ही किया जा सकता है।
कार्यक्रम का पूरा वीडियो यूट्यूब पर अपलोड कर दिया गया है, देखने के लिए निचे दिए लिंक पर क्लिक करें।