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लोक पहल के द्वारा “धार्मिक स्थलों के पुनर्निर्माण से सांस्कृतिक उत्थान तक योगी सरकार का योगदान” विषय पर 26 दिसंबर 2021 को ऑनलाइन कार्यक्रम आयोजित किया गया। इस कार्यक्रम के मुख्य वक्ता प्रो०अवनिजेश अवस्थी (दिल्ली विश्वविद्यालय) जी रहे।

वक्तागण एवं विचार माला

प्रो०अवनिजेश अवस्थी (दिल्ली विश्वविद्यालय)- हम 1947 में आज़ाद आवश्य हुए, मगर वह प्रशासनिक आज़ादी थी। आध्यात्मिक नहीं। कानपुर के इत्र कारोबारी से अकूत कला धन बरामद होना हमारे लोकतंत्र पर गंभीर प्रश्नचिन्ह है। बहुत सी बातें जो स्वतंत्र भारत में हुईं, वे लोकमत/लोकतंत्र  से बेमेल थीं। वे भारतीय जनमानस पर थोपी गयीं। यदि प्रशासक ही यह कहे की वह एक्सीडेंटल/परिस्थितिवश हिन्दू है (मन से नहीं) तो इसका साइड इफ़ेक्ट/दुष्परिणाम तो देश की जनता भुगतेगी  ही। 

मैं अपनी बात वासुदेव शरण अग्रवाल के दो वक्तव्यों से स्पष्ट करूंगा। एक, संस्कृति की प्रवृत्ति महाफल देती है। दो, मानव जीवन का  आध्यात्मिक पक्ष किसी भी प्रकार से आर्थिक पक्ष से कम महत्वपूर्ण नहीं है। दोनों पक्ष रथ के दो पहियों के सामान हैं। यह मिथ्या अवधारणा है कि हिन्दू संस्कृति केवल अंतर्मन की, निवृत्ति की  बात करती है, बाहर के व्यावहारिक संसार की नहीं। दुर्भाग्य से यह अवधारणा `एक्सीडेंटल हिन्दू’ की बात से शुरू हो कर आज तक बनी हुई है। काशी विश्वनाथ का लोकार्पण हिन्दू पुनर्जागरण और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का प्रबल संकेत है। देर से ही सही, देवालयों का पुनरुत्थान/पुनर्निर्माण हिन्दू जीवन शैली के लम्बे चले आ रहे अपमान और उपहास का प्रतिकार है। 

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और एक्सीडेंटल हिन्दू, जवाहर लाल नेहरू, का टकराव  1947  से ही शुरू हो गया था। जब गुजरात के सोमनाथ मंदिर के पुनरुद्धार का प्रश्न उठा, नेहरू ने इसका विरोध किया। इतना ही नहीं, उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद को भी इस कार्य में प्रतिभाग करने से रोका। राष्ट्रपति नहीं माने और इसका खामियाजा उन्हें नेहरू के अहंकार से उपजी घोर उपेक्षा से चुकाना पड़ा। अध्यात्म और राजनीती  का यह द्वन्द आज भी जारी है। 

सौभाग्य से आज राम मंदिर बन रहा है। परन्तु राम मंदिर बनाने का संघर्ष 1947 के बाद का नहीं है। उससे बहुत पहले का है। यह पौने पांचसौ साल के संघर्ष का प्रतिफल है। देश की आज़ादी भी केवल बीसवीं शताब्दी के 40 वर्षों के गाथा नहीं है। स्वाधीनता की चेतना भारत में सदैव रही है, अनवरत रही है। भक्तिकाल के उन 300  वर्षों में भी जब तलवार के बल पर मुग़ल साम्राज्य फल फूल रहा था। उस समय के भक्त कवियों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से जन सामान्य में आध्यात्मिक चेतना की वह लौ जलाये रखी जिसे मुस्लिम आक्रांताओं ने बुझाने का भरसक प्रयास किया। जब हिन्दू आस्था के प्रतीक चिन्हों को ध्वस्त किया जा रहा था, तो भक्ति कवि रसखान, जो स्वयं एक मुस्लिम थे, ने लिखा: मनुष हौं‚ तो वही ‘रसखानि’ बसौं बृज गोकुल गांव के ग्वारन, जो पसु हौं‚ तो कहां बस मेरौ‚ चरौं नित नंद की धेनु मंझारन। रसखान ने निर्भीकता से अपने ही धर्म इस्लाम के विरुद्ध जा कर नया जन्म लेने की और कृष्णभक्ति  की बात कही। इसी प्रकार तुलसीदास और  सूरदास जैसे कवियों ने विषम परिस्थितियों में जनसामान्य का मनोबल गिरने नहीं दिया। वे ईश्वर के प्रति विश्वास बनाये रखने का सन्देश देते रहे, जो आज 21 वीं सदी में फलीभूत हो रहा है। इन कवियों ने भारतीय समाज को जात पात के भेद भाव से ऊपर उठ कर एकजुट रहने की प्रेरणा दी जो आज भी प्रासंगिक है। 

जो इतिहासकार भारत के स्वतंत्रता संग्राम को 1905  से शुरू हुआ बताते हैं मैं उनसे पूछता हूं, यदि वे सत्य बोल रहे हैं तो फिर छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप, गुरु गोविन्द सिंह, गुरु तेग बहादुर, गुरु अर्जुन देव, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानन्द; ये महान आत्माएं क्या कर रही थीं? ये सब स्वाधीनता संग्राम के ध्वज वाहक ही तो थे। 

राम मंदिर संघर्ष के दौरान अनेक अनर्गल और फूहड़ बातें सुनी गयीं। मणि शंकर अय्यर ने कहा : अयोध्या के अवशेषों  में उस कमरे का पता लगाओ जिसमे श्री राम का जन्म हुआ, और उस स्थान पर एक छोटी सी कुटिआ बना दो। कौन भूल सकता है 1992 में कारसेवकों पर चली गोलियां, सरयू का पानी रक्त से लाल हो गया था। रामभक्तों की हत्या का राजनीतिक लाभ भी उठाया गया, कहा गया : और मैं कर ही क्या सकता था, गोली ही चला सकता था, वही मैंने किया, और मैं क्या करता ? जयचंद केवल इतिहास के पात्र नहीं हैं। आज भी वे हमारे देश में विद्यमान हैं। आज के जयचंद कहते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था चरमरा गयी है। वहीं समूचा विश्व भारत की प्रगति से प्रभावित है और इससे कुछ सीखना चाहता है। विगत पांच वर्ष में उत्तर प्रदेश में कोई दंगा नहीं हुआ। दंगे का अर्थ है आर्थिक विनाश। और दंगे का न होना सूचक है सुख और समृद्धि का। भारत आज एक प्रगतिशील अर्थव्यवस्था है। 

मुस्लिम आक्रांताओं ने  देश की सनातन संस्कृति को को गहरे घाव दिए हैं। अमीर खुसरो जैसे दिग्गभ्रमित कवि ने लिखा: `छाप तिलक सब छीनी रे। किसकी छाप ? किसका तिलक ? एक अन्य कहता है : शहंशाह के महल के सामने से इन काफिरों (हिन्दुओं) की साफ़ कपडे पहनकर जाने की हिम्मत कैसे होती है ? यह सनातन  विरोध आज भी विद्यमान है। ज्यादा दिन नहीं हुए  जब उत्तर प्रदेश में आज़ान के समय मंदिरों में पुलिस की ड्यूटी लग जाती थी। मंदिरों में घंटा न बजे, पुलिसवाले  घंटा पकड़ कर खड़े हो जाते थे। नमाज ख़त्म होने के बाद ही मंदिरों में घंटा बजाया जा सकता था। कौन भूल सकता है 1966 में साधुओं पर चलायी गयी गोलियां। क्या मांग रहे थे वे साधुजन ? बस इतना ही न, कि गोहत्या बंद हो। 

 समाजवादी राजनेता राम मनोहर लोहिआ ने कहा है कि अयोध्या मथुरा और काशी अर्थात राम कृष्ण और शिव; इनके बिना भारत की पहचान संभव नहीं है। इससे समझा जा सकता है कि  इस्लामिक आक्रांताओं ने यहाँ आ कर मंदिरों को, हिन्दू प्रतीक चिन्हों को, क्यों खंडित किया। क्योकि देव और देवालय ही भारत की पहचान रहे  हैं। आक्रांता इन्हें नष्ट कर के, इनके स्थान पर मस्जिद और मदरसे बना कर  भारतवासियों  का  मनोबल तोड़ कर उन्हें दीन-हीन  बनाने का प्रयास करते रहे। उनके विध्वंसक इरादों का भारत की स्वाधीन चेतना ने लगातार प्रतिकार किया। यह प्रतिकार आज भी हो रहा है।  देवालयों एवं ऐतिहासिक स्थलों के   देशव्यापी  जीर्णोद्धार इसका जीता जगता प्रमाण हैं। 

जो मंदिर के स्थान पर अस्पताल, विश्विद्यालय या अन्य कोई सार्वजानिक सुविधा लगाने की बात करते हैं वे समझ लें कि मंदिर भारतीय अस्मिता के प्रतीक हैं। जिस प्रकार भौतिक आवश्यकताओं के लिए सांसारिक गतिविधियां महत्वपूर्ण हैं, मानसिक सम्बल के लिए आध्यात्मिक चेतना आवश्यक है जो मंदिरों और देवालयों से प्रस्फुटित होती है। मानव जीवन के दो पहिये, अर्थ और आध्यात्म; दोनों आवश्यक हैं। देवस्थलों का ना कोई विकल्प था न हो सकता है। सामन्य जन समझ लें कि  तलवार के बल पर बने  साम्राज्य का पतन निश्चित है।आज हमें सकारात्मक परिवर्तन के लिए शस्त्र उठाने की आवश्यकता नहीं है।  लोकतंत्र हमें मतदान का एक सहज विकल्प देता है। मतदान के  `बटन’ का प्रयोग करें। जो भारत की आत्मा को, देवालयों को मिटा कर मस्जिद, मदरसे बनाने के पक्षधर हैं, उन्हें इस बटन से पराजित करें। एक्सीडेंटल-हिन्दू की अवधारणा को एक्सीडेंटल-भारतीय  तक न बढ़ने दें। जयचंद सरीखी आपसी प्रतिद्वंदिता न उलझ कर हो कर एक शक्तिशाली राष्ट्र के लिए एकजुट हों। हमारी  भलाई  समाज की  भलाई में ही निहित है। समाज प्रगति करेगा तो हमारी वैयक्तिक प्रगति स्वाभाविक रूप से होगी ही। अन्यथा लोकतंत्र का वीभत्स स्वरुप, जैसा कि कानपुर के  इत्र कारोबारी की काली करतूत में सामने आया है, हिन्दू मंदिरों के विध्वंस में देखा गया है,उसकी पुनरावृत्ती होती  रहेगी। 

आओ धार्मिक स्थलों के पुनर्निर्माण से सांस्कृतिक उत्थान तक जो योगदान  योगी सरकार ने दिया है, इसे आगे बढ़ाएं। सुलझे, सुसंस्कृत और राष्ट्रवादी उम्मीदवारों को वोट देकर।

कार्यक्रम का पूरा वीडियो यूट्यूब पर अपलोड कर दिया गया है, देखने के लिए निचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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( उ.  प्र.)  चुनावी  सर्वेक्षण  2022
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